पर्यावरण को बचाने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड को चट्टानों में कैद कर रहे वैज्ञानिक
रेक्याविक. आइसलैंड में वैज्ञानिकों ने फैक्ट्रियों और वाहनों से बढ़ रहे कार्बन डाइऑक्साइडउत्सर्जन को कम करने का तरीका खोज लिया है। रिसर्चर अब इस खतरनाक ग्रीन हाउस गैस को चट्टानों में बदल रहे हैं। इससे पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की कमी तो हो रही है। साथ ही जीवाश्म ईधन बनाने की प्रक्रिया को भी छोटा बनाने का तरीका निकाल लिया गया है।
इस तकनीक को आइसलैंड में कार्बफिक्स प्रोजेक्ट के तहत ईजाद किया गया है। इसमें आइसलैंड यूनिवर्सिटी, फ्रांस के नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च और अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने योगदान दिया है।
कैसे चट्टानों में बदली जाती है कार्बन डाइऑक्साइड?
प्रोजेक्ट के निदेशक एडा सिफ अरादोतिर के मुताबिक, नए तरीके में सबसे पहले पर्यावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड को भाप का इस्तेमाल कर कंटेनरों में कैद किया जाता है। इसके बाद गैस को कंडनसेशन(संघनन) के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके बाद गैस को पानी में मिलाया जाता है और फिर तरल पदार्थ को पाइप के इस्तेमाल से सैकड़ों किलोमीटर दूर मौजूद चट्टानों में भारी दबाव पर जमा दिया जाता है।
यह चट्टानें जमीन के करीब 3300 फीट नीचे स्थित होती हैं।भारी दबाव में गैस के दोबारा ठोस होने की प्रक्रिया शुरू होती है। जैसे ही पानी के साथ मिली CO2 चट्टान में मौजूद कैल्शियम, मैग्निशियम या आयरन के संपर्क में आती है, वैसे ही इसका खनिज में बदलना शुरू हो जाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस प्रकिया से महज दो साल में ही सारी CO2 खनिज में बदल जाती है। जबकि प्राकृतिक तौर पर तो चट्टान कोCO2 सोखने में हजारों साल लग जाते हैं।
पानी की मौजूदगी से आइसलैंड के लिए प्रक्रिया आसान
जिस पावरप्लांट पर वैज्ञानिकों ने यह रिसर्च की वहां कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जन करीब 33% तक कम हो गया। हालांकि, दुनिया के बाकी किसी हिस्से में यह प्रयोग सफल रहेगा या नहीं यह वहां की स्थिति पर निर्भर करेगा। इसकी वजह यह है कि एक टन CO2 को चट्टान में भरने के लिए करीब 25 टन पानी लगता है। ग्लेशियर के पास मौजूद होने की वजह से आइसलैंड के लिए यह तकनीक फायदेमंद है। लेकिन बाकी देशों में पानी की कमी एक बड़ा मुद्दा है।
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Source: bhaskar international story